एक तरह से बीजेपी में ऊपर से आक्रामक राष्ट्रवाद है. मर्दवादी राष्ट्रवाद है लेकिन ये भी सच है कि मोदी ने कहा कि वो महिलाओं के मुद्दे
को उठा रहे हैं. गैस सिलिंडर दे रहे हैं. स्वच्छ भारत कर रहे हैं.
क्या आप कांग्रेस का कोई ऐसा उदाहरण दे सकते हैं जहां वो कह सकें कि ये मुद्दा कल का है, हम इसे लेकर चलेंगे?
कांग्रेस का घोषणापत्र बहुत अच्छा था. लेकिन घोषणापत्र को आप चुनाव के दो महीने पहले जारी करते हैं.
भारतीय मतदाता मज़बूत सुप्रीम कोर्ट और मजबूत निर्वाचन आयोग के महत्व को समझता है लेकिन अगर ये संस्थाएं मज़बूत नहीं हैं तो इनका दोषी किसे ठहराया जा रहा है? लोग इसके लिए नरेंद्र मोदी को दोषी नहीं ठहरा रहे हैं. वो इसके लिए भारत के बुद्धिजीवी वर्ग को दोषी ठहरा रहे हैं. वो मानते हैं कि ये वर्ग इतना बिकाऊ हो गया है कि उसे ख़त्म कर सकते हैं.
आप कह सकते हैं कि सरकार का सुप्रीम कोर्ट पर दबाव है लेकिन ये प्रश्न तो उठता ही है कि जिस संस्थान के पास इतनी शक्तियां थीं वो संस्था अगर अंदर से ख़त्म हो रही है और स्वायतत्ता रखने वाले शैक्षणिक संस्थान ख़त्म हो रहे हैं तो उसका पहला दोष किसको जाएगा? उसका दोष संस्थान के पुराने अभिजात्य वर्ग पर होगा.
अगर आप जनता से जाकर कहें कि सुप्रीम कोर्ट सरकार की तरफ़दारी कर रहा है तो वो पहला सवाल ये पूछेंगे कि इतने समर्थ जज अगर सरकार की चापलूसी कर रहे हैं तो इसमें सरकार को दोषी क्यों ठहरा रहे हैं?
भारतीय समाज का आज का संकट ये है कि पुराने दौर के अभिजात्य (इलीट) वर्ग की विश्वसनीयता बिल्कुल ख़त्म हो गई है. मोदी बड़ी होशियारी से वही संकेत देते हैं. लुटियन्स दिल्ली, ख़ान मार्केट गैंग.
आप मज़ाक कर सकते हैं कि ऐसा कोई गैंग नहीं है लेकिन वो इस बात का सूचक बन गया है और लोगों के मन में ये घर कर गया है कि भारत का जो उच्च मध्यम वर्ग है, वो इतना बिकाऊ है कि अगर ये संस्थाएं ख़त्म हो रही हैं तो इसका दोष मोदी को नहीं इन संस्थाओं को जाना चाहिए.
मीडिया के लिए दोष किसको दें? मोदी को दें या उन संस्थाओं के मालिकों को दें?
जब ये कहा जाता है कि पत्रकारिता निष्पक्ष थी निडर थी तब सवाल होता है कि कहां निष्पक्ष और निडर थी. वो निष्पक्षता के नाम पर पुरानी व्यवस्था को कायम रखना चाहती थी. मैं नहीं कहता कि ये बात सही है या ग़लत है लेकिन जनता यही कह रही है.
हमें इस बात का जवाब देना होगा कि हमारे समाज में क्या ऐसी परिस्थिति हो गई कि लोगों पर उनके झूठ का कम प्रभाव होता है और जो भी उस झूठ को उजागर करता है, उसके बारे में माना जाता है कि इसका कोई स्वार्थ है.
ये सही है कि जहां भी सत्ता एक व्यक्ति के हाथ में आती है, उसके ख़तरे होते हैं. प्रजातंत्र में वो अच्छा नहीं होता.
भारतीय जनता पार्टी सिर्फ़ एक राजनीतिक पार्टी नहीं है. ये एक सामाजिक समीकरण भी है. इनका एक सांस्कृतिक एजेंडा है. ये कहा करते थे कि अल्पसंख्यको का हिंदुस्तान की राजनीति में एक वीटो था जिसे हम अल्पसंख्यकों को बिल्कुल अप्रासंगिक कर देंगे. ये इनकी विचारधारा में निहित है. आज मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व बिल्कुल नहीं के बराबर हो गया है.
राम जन्मभूमि आंदोलन के समय से जो पार्टी का हार्डकोर धड़ा है, वो सवाल करेगा कि अगर अब आपने हिंदुत्व विचारधारा को स्थापित नहीं किया संस्थाओं में तो कब करेंगे? इससे बड़ी जीत क्या हो सकती है?
ये दबाव आएगा तो मुझे नहीं लगता कि मोदी इसे रोकेंगे या पीछे हटेंगे. इसी चुनाव में देखा गया है कि मानक बिल्कुल गिरते जा रहे हैं. दस साल पहले क्या कोई कल्पना करता था कि प्रज्ञा ठाकुर बीजेपी की स्टार उम्मीदवार होंगी. उनकी जीत पर आज जश्न मनाया जा रहा है. ये एक तरह का ज़हर है जिसे आप दोबारा बोतल में नहीं डाल सकते हैं.
बहुसंख्यकवाद के ख़तरे इस चुनाव में बड़ी स्पष्ट रूप से उभरकर आए हैं.
ये चुनाव उन परिस्थितियों में हुआ जहां भारत की आर्थिक व्यवस्था उतनी सुदृढ़ नहीं है जितना प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं. वास्तविक ग्रोथ रेट चार या साढ़े चार प्रतिशत है. बेरोज़गारी की समस्या है.
कृषि क्षेत्र में संकट है. इस सबके बाद भी अगर जनता ने इन्हें वोट दिया है तो यही निष्कर्ष निकलता है कि वो मज़बूत नेता चाहते थे. दूसरा आज हम उस स्थिति में पहुंच गए हैं जहां बहुसंख्यकवाद का बहुसंख्यकों पर ज़्यादा असर नहीं पड़ता है. वो समझते हैं कि हमें कोई क्या कर लेगा. ये भारतीय लोकतंत्र का बड़ा नाजुक मोड़ है.
जनता ने अपना फ़ैसला दे दिया है तो कहा जा सकता है कि ये लोकतंत्र की जीत है. लेकिन ये उदारता की जीत नहीं है. ये संवैधानिक मूल्यों की जीत नहीं है.
(होना ये चाहिए कि) हम ऐसा भारत बनाएं जहां हर व्यक्ति चाहे वो किसी भी जाति या समुदाय का हो, उसे ये ख़तरा नहीं रहे कि मैं जिस समुदाय से आता हूं, उसकी वजह से मुझे कोई ख़तरा है.
क्या आप कांग्रेस का कोई ऐसा उदाहरण दे सकते हैं जहां वो कह सकें कि ये मुद्दा कल का है, हम इसे लेकर चलेंगे?
कांग्रेस का घोषणापत्र बहुत अच्छा था. लेकिन घोषणापत्र को आप चुनाव के दो महीने पहले जारी करते हैं.
भारतीय मतदाता मज़बूत सुप्रीम कोर्ट और मजबूत निर्वाचन आयोग के महत्व को समझता है लेकिन अगर ये संस्थाएं मज़बूत नहीं हैं तो इनका दोषी किसे ठहराया जा रहा है? लोग इसके लिए नरेंद्र मोदी को दोषी नहीं ठहरा रहे हैं. वो इसके लिए भारत के बुद्धिजीवी वर्ग को दोषी ठहरा रहे हैं. वो मानते हैं कि ये वर्ग इतना बिकाऊ हो गया है कि उसे ख़त्म कर सकते हैं.
आप कह सकते हैं कि सरकार का सुप्रीम कोर्ट पर दबाव है लेकिन ये प्रश्न तो उठता ही है कि जिस संस्थान के पास इतनी शक्तियां थीं वो संस्था अगर अंदर से ख़त्म हो रही है और स्वायतत्ता रखने वाले शैक्षणिक संस्थान ख़त्म हो रहे हैं तो उसका पहला दोष किसको जाएगा? उसका दोष संस्थान के पुराने अभिजात्य वर्ग पर होगा.
अगर आप जनता से जाकर कहें कि सुप्रीम कोर्ट सरकार की तरफ़दारी कर रहा है तो वो पहला सवाल ये पूछेंगे कि इतने समर्थ जज अगर सरकार की चापलूसी कर रहे हैं तो इसमें सरकार को दोषी क्यों ठहरा रहे हैं?
भारतीय समाज का आज का संकट ये है कि पुराने दौर के अभिजात्य (इलीट) वर्ग की विश्वसनीयता बिल्कुल ख़त्म हो गई है. मोदी बड़ी होशियारी से वही संकेत देते हैं. लुटियन्स दिल्ली, ख़ान मार्केट गैंग.
आप मज़ाक कर सकते हैं कि ऐसा कोई गैंग नहीं है लेकिन वो इस बात का सूचक बन गया है और लोगों के मन में ये घर कर गया है कि भारत का जो उच्च मध्यम वर्ग है, वो इतना बिकाऊ है कि अगर ये संस्थाएं ख़त्म हो रही हैं तो इसका दोष मोदी को नहीं इन संस्थाओं को जाना चाहिए.
मीडिया के लिए दोष किसको दें? मोदी को दें या उन संस्थाओं के मालिकों को दें?
जब ये कहा जाता है कि पत्रकारिता निष्पक्ष थी निडर थी तब सवाल होता है कि कहां निष्पक्ष और निडर थी. वो निष्पक्षता के नाम पर पुरानी व्यवस्था को कायम रखना चाहती थी. मैं नहीं कहता कि ये बात सही है या ग़लत है लेकिन जनता यही कह रही है.
हमें इस बात का जवाब देना होगा कि हमारे समाज में क्या ऐसी परिस्थिति हो गई कि लोगों पर उनके झूठ का कम प्रभाव होता है और जो भी उस झूठ को उजागर करता है, उसके बारे में माना जाता है कि इसका कोई स्वार्थ है.
ये सही है कि जहां भी सत्ता एक व्यक्ति के हाथ में आती है, उसके ख़तरे होते हैं. प्रजातंत्र में वो अच्छा नहीं होता.
भारतीय जनता पार्टी सिर्फ़ एक राजनीतिक पार्टी नहीं है. ये एक सामाजिक समीकरण भी है. इनका एक सांस्कृतिक एजेंडा है. ये कहा करते थे कि अल्पसंख्यको का हिंदुस्तान की राजनीति में एक वीटो था जिसे हम अल्पसंख्यकों को बिल्कुल अप्रासंगिक कर देंगे. ये इनकी विचारधारा में निहित है. आज मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व बिल्कुल नहीं के बराबर हो गया है.
राम जन्मभूमि आंदोलन के समय से जो पार्टी का हार्डकोर धड़ा है, वो सवाल करेगा कि अगर अब आपने हिंदुत्व विचारधारा को स्थापित नहीं किया संस्थाओं में तो कब करेंगे? इससे बड़ी जीत क्या हो सकती है?
ये दबाव आएगा तो मुझे नहीं लगता कि मोदी इसे रोकेंगे या पीछे हटेंगे. इसी चुनाव में देखा गया है कि मानक बिल्कुल गिरते जा रहे हैं. दस साल पहले क्या कोई कल्पना करता था कि प्रज्ञा ठाकुर बीजेपी की स्टार उम्मीदवार होंगी. उनकी जीत पर आज जश्न मनाया जा रहा है. ये एक तरह का ज़हर है जिसे आप दोबारा बोतल में नहीं डाल सकते हैं.
बहुसंख्यकवाद के ख़तरे इस चुनाव में बड़ी स्पष्ट रूप से उभरकर आए हैं.
ये चुनाव उन परिस्थितियों में हुआ जहां भारत की आर्थिक व्यवस्था उतनी सुदृढ़ नहीं है जितना प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं. वास्तविक ग्रोथ रेट चार या साढ़े चार प्रतिशत है. बेरोज़गारी की समस्या है.
कृषि क्षेत्र में संकट है. इस सबके बाद भी अगर जनता ने इन्हें वोट दिया है तो यही निष्कर्ष निकलता है कि वो मज़बूत नेता चाहते थे. दूसरा आज हम उस स्थिति में पहुंच गए हैं जहां बहुसंख्यकवाद का बहुसंख्यकों पर ज़्यादा असर नहीं पड़ता है. वो समझते हैं कि हमें कोई क्या कर लेगा. ये भारतीय लोकतंत्र का बड़ा नाजुक मोड़ है.
जनता ने अपना फ़ैसला दे दिया है तो कहा जा सकता है कि ये लोकतंत्र की जीत है. लेकिन ये उदारता की जीत नहीं है. ये संवैधानिक मूल्यों की जीत नहीं है.
(होना ये चाहिए कि) हम ऐसा भारत बनाएं जहां हर व्यक्ति चाहे वो किसी भी जाति या समुदाय का हो, उसे ये ख़तरा नहीं रहे कि मैं जिस समुदाय से आता हूं, उसकी वजह से मुझे कोई ख़तरा है.